कर्मण्येवाधिकारस्ते

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गीता के दूसरे अध्याय के 47 वें श्लोक की विस्तृत विवेचना। इस में कर्म, अकर्म, विकर्म, निष्काम कर्म में अंतर बताते हुए व्याख्या की गई है। स्वकर्म, स्वधर्म,स्वभाव का भी विश्लेषण किया गया है। बताया गया इै कि निष्कामता मन की एक अवस्था मात्र है। इस अवस्था में ठहर जाने के बाद ही अनासक्ति भाव आता है। कर्म संबंधी जितने भी प्रश्न हो सकते हैं उन सब के जवाब यहां उपलब्ध हैं। यह सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है। हम जब स्वयं के व्यक्तिगत अहं बोध को भूल जाते है तब ही गीता का कर्मवाद समझ में आता है।

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